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दलित साहित्य क्या है ?

दलित साहित्य क्या है ? अ दलित साहित्य क्या है ? अकसर हम सुनते आ रहे हैं। दलित साहित्य का एक दो पन्ने उलट - पलट कर वर्गवादी, जातिवादी व एक पक्ष की कोटि में खड़ा करना समुचित नहीं हो सकता। इसके लिए सबसे पहले गहन अध्येता बनना पड़ता है। दलित साहित्य में हमें हर जगह समता - बंधुता, भाईचारे की बहुतायत मिलेगी। परंपरा विरोधी स्वर तो होता है लेकिन वह अन्याय पर आक्रोश है। समाज में न्याय स्थापित करने एवं हमारे संकुचित भावधारा को विज्ञान की कोटि में ले आने का प्रयास है। मनुष्य होने की बात है। हर मनुष्य की गरिमा, प्रतिभा, क्षमता को समता के धरातल पर दिखाने का आईना है। दलित साहित्य शिक्षा के क्षेत्र में विस्तार से ले आने की आवश्यकता है। डॉ.कार्तिक चौधरी के शब्दों में देखते हैं कि " लेकिन मुझे लगता है कि दलित साहित्यकार समाज के लिए मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से कम भी नहीं हैं जो अपने वैज्ञानिक तथ्यों के माध्यम से व्यवस्था सुधार में लगे हुए हैं। हमें यह जानना होगा वर्षों से चली आ रही खास कर साहित्य की परंपरा में साहित्य के मनोचिकित्सक हमारे दलित साहित्यकार ही हैं, जिन्होंने शब्दों की अवधारणा का वैज्ञानिक
 वरिष्ठ साहित्यकार दिवंगत सूरजपाल चौहान जी की स्मृति में प्रारंभ किए गए सूरजपाल चौहान साहित्य सृजन सम्मान – 2021 के लिए दस लेखक / संपादकों के नाम की घोषणा की गई -- https://www.gramintvsamachar.com/2021/10/2021_23.html

झूठ

 / झूठ / हर जगह कई लोग चुपके - चुपके चलते हैं अपना मुँह छिपाते वो धीरे - धीरे चलते हैं वर्ण-जाति-वर्ग की निशा में  एक दूसरे को कुचलाते भेद - विभेद, अहं की आड़ में असमर्थ बन बैठे हैं मनुष्य एक दूसरे को जानने में, समता-ममता-बंधुता-भाईचारा अक्षरों की दुनिया में एक सुंदर सपना है सुख-भोग की चिंता में एक दूसरे पर छुरी मारते जिंदगी एक झूठ है।
  वैश्वीकरण के दौर में हिंदी पैड़ाला रवींद्रनाथ श्री. वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय तिरूपति, आँध्रप्रदेश । वैश्वीकरण के दौर में हिंदी             आज हम वैश्वीकरण की दुनिया में हैं। वैश्वीकरण शब्द अँग्रेजी के ग्लोबलैजेशन शब्द का पर्याय शब्द है। यह दो शब्दों से बना है विश्व + एकीकरण इसका अर्थ है एक छत के नीचे आकर एक दूसरे की मदद करना। देश की अर्थ व्यवस्था को विश्व की अर्थ व्यवस्था के साथ जोड़ना ही वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया जो है वह बहुत प्राचीन काल की है, इसको हम हड़प्पा सभ्यता के साथ जोड़ते हैं। आधुनिक वैश्वीकरण 1990 के आस- पास से माना जाता है। इस आधुनीकीकरण में लोगों के बीच में न केवल व्यापार का होता है बल्कि अपनी भाषा, खान - पान, आचार- विचार, रहन – सहन आदि का आदान – प्रदान होता है। वैश्वीकरण के दौर में हिंदी की स्थिति पर हम विचार करेंगे। हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा, राज भाषा एवं संपर्क भाषा है। सबसे पहले हम इन तीनों शब्दों के अर्थ को भली – भांति समझना आवश्यक है। राष्ट्रभाषा माने देशभाषा, देश में बोली जानेवाली भाषा है। वास्तव में भारत के सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं।

वेदना के शूल

 "वेदना के शूल" पैड़ाला रवींद्रनाथ का पहला कविता संग्रह है। कवि का जन्म गरीब दलित परिवार में होने कारण उसके पास भूख, पीड़ा, दमन की अनुभूति है। वेदना एवं पीड़ा की अभिव्यक्ति उसकी कविताओं में देखी जाती है।  हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख स्तंभ, स्नेहशील स्वभाव के धनी, गहन चिंतक, आदरणीय डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी का आशीर्वाद लेकर ' वेदना के शूल ' कविता संग्रह सुधी पाठकों के सामने आया है।  मान्य कर्दम महोदय जी के प्रति तहे दिल से हम प्रकट आभार करते हैं। पुस्तक का कवरपेज के साथ एक आकार देकर प्रकाशित करने में योगदान देनेवाले प्रकाशक "आनलाइन गथा" ( ONLINE GATHA ) के प्रति भी हम विशेष आभार प्रकट करते हैं।            भूमिका : डॉ.जयप्रकाश कर्दम                 दलितों का जीवन दुःख और वेदना से भरा है। उनकी ज़िंदगी के रास्तों में सब ओर सर्वत्र वेदना के शूल बिछे हैं जो चुभते हैं और दंश देते हैं। वेदना के शूलों के दंश की पीड़ा उनको कभी सहज नहीं रहने देती, वे निरंतर आहत और असहज रहते हैं। वेदना की अपनी अनुभूति होती है और यह उसे ही होती है जो वेदना के दर्द से गुज़रा हो। दलित वेदना के दर