यही हमारा जीवन !
यही हमारा जीवन ! युग बीतते जा रहे हैं मगर मानव के स्वार्थ चिंतन में बदलाव नहीं आया । जाति का प्रेम नस - नस में अहं की भूमिका निभाता रहा । अपने बढाई के दौड - धूप में मनुष्य का होना भूल गया । बढ - बढ की बातें धर्म का आचरण में अंगडाइयाँ लेता । यही असली जीवन मर्म का हमारे इस गौरवमय समाज का । आचार - संप्रदाय को भूलता नहीं असल में अपने बारे में अकल की दुहाइयाँ देता । जिंदगी का सही कोश बन नहीं पाता किसी का बना सत्य अपना लेता अपना सच्चा धर्म मान लेता उसी कुएँ का अंधा बन जाता । दूसरे के धर्म कोखला मानता हायरे ! जिंदगी का असला गूँगा हो जाता । आलसी जीवन यह हमारे का । दूसरे के पैसे से मौज लेनेवाले का बडी मूर्खता का जीवन । निरंतर चिंतन की आइने में देखें असली वस्तु का अवबोध होवें । सबको पार, सबसे दूर मन में रहें ज्ञान शक्ति के अनंताकार की अनुभूति बंधन की जडमति होती सुजाति ।