वेदना के शूल

 "वेदना के शूल" पैड़ाला रवींद्रनाथ का पहला कविता संग्रह है। कवि का जन्म गरीब दलित परिवार में होने कारण उसके पास भूख, पीड़ा, दमन की अनुभूति है। वेदना एवं पीड़ा की अभिव्यक्ति उसकी कविताओं में देखी जाती है। 

हिंदी दलित साहित्य के प्रमुख स्तंभ, स्नेहशील स्वभाव के धनी, गहन चिंतक, आदरणीय डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी का आशीर्वाद लेकर ' वेदना के शूल ' कविता संग्रह सुधी पाठकों के सामने आया है। 

मान्य कर्दम महोदय जी के प्रति तहे दिल से हम प्रकट आभार करते हैं।

पुस्तक का कवरपेज के साथ एक आकार देकर प्रकाशित करने में योगदान देनेवाले प्रकाशक "आनलाइन गथा" ( ONLINE GATHA ) के प्रति भी हम विशेष आभार प्रकट करते हैं।


           भूमिका : डॉ.जयप्रकाश कर्दम

           

    दलितों का जीवन दुःख और वेदना से भरा है। उनकी ज़िंदगी के रास्तों में सब ओर सर्वत्र वेदना के शूल बिछे हैं जो चुभते हैं और दंश देते हैं। वेदना के शूलों के दंश की पीड़ा उनको कभी सहज नहीं रहने देती, वे निरंतर आहत और असहज रहते हैं। वेदना की अपनी अनुभूति होती है और यह उसे ही होती है जो वेदना के दर्द से गुज़रा हो। दलित वेदना के दर्द से गुज़रे हैं, और शताब्दियों से इस दर्द की पीड़ा से चीख़ते, कराहते आ रहे हैं। दर्द की अनुभूति सबको होती है और सब अपनी-अपनी तरह से उसको अभिव्यक्त करते हैं। लिखने में असमर्थ निरक्षर लोग लोक-गीतों आदि के माध्यम से अपने दर्द को अभिव्यक्ति देते रहे हैं। इस दर्द को संत रैदास, कबीर, चोखा, नामदेव आदि की वाणी में सहज महसूस किया जा सकता है। आधुनिक काल में हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ भी इस दर्द को गहराई से अनुभव कराती है। लोक-साहित्य में प्रायः निरक्षर लोगों द्वारा रचित साहित्य ही है जो दीर्घ काल से वाचिक परंपरा के रूप में, लोक जीवन में सुरक्षित और समृद्द होता आया है। साहित्य का मूल उद्देश्य मानव-हित है, जिसमें मानव-सुख निहित है। यह बहुत स्वाभाविक है कि साहित्य मनुष्य के दुःख, दर्द, वेदना, संवेदना को समझे तथा मानव को उससे मुक्त होने के लिए प्रेरित करे, उसका मनोबल बढ़ाए और मुक्ति के उपाय खोजे। यूँ लोक मंगल को साहित्य का उद्देश्य मानने वाली परम्परा भी रही है किंतु उसका स्वर बहुत मंद और अस्पष्ट, और इस कारण अनसुना सा भी रहा है। साहित्य में आनंदवादी परंपरा इतनी सशक्त है कि उसके समक्ष कल्याणवादी परंपरा दबी सी रही है। साहित्य को आनंद प्राप्ति का साधन मानने वाली परंपरा के विपरीत दलित साहित्य मानव-कल्याण पर बल देता है, तथा मनुष्य के दलन, शोषण, अपमान, अन्याय, उत्पीड़न, उपेक्षा, निषेध, वर्जनाओं के दुःख, दर्द, वेदना, संघर्ष को पूरी निस्संगता और शक्ति से अभिव्यक्त करता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह वेद के स्थान पर लोक को और ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को महत्व देता है। मनुष्य-केंद्रित होने के कारण दलित साहित्य में दलित, शोषित और उत्पीडित मनुष्य की वेदना, संताप और संघर्ष की अभिव्यक्ति का प्राधान्य है।

      वेदना के शूल कभी न कभी, किसी न किसी समय, किसी न किसी रूप में प्रत्येक दलित को चुभते हैं और आहत करते हैं। दलित साहित्य इसी वेदना और इससे मुक्ति के संघर्ष की अभिव्यक्ति का साहित्य है। युवा कवि पी.रवीन्द्रनाथ को भी वेदना के शूल चुभते हैं। उनकी कविताएँ इसी चुभन के दर्द की अभिव्यक्ति है। यह उनका प्रथम कविता संग्रह है। इसका ‘वेदना के शूल’ नामकरण करना वेदना के शूलों की उनकी घनीभूत पीड़ा को द्योतित करता है। पुस्तक रूप में रवीन्द्रनाथ की कविताएँ पहली बार प्रकाशित हो रही हैं, किंतु वह पिछले कई वर्षों से निरंतर कविताएँ लिखते आ रहे हैं। मैं उनके कवि-कर्म से गुज़रता रहा हूँ। उनकी अधिकांश रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ फ़ेसबुक और व्हाटसएप्प आदि पर भी अपलोड हुई हैं, जो मेरी दृष्टि के सामने से गुज़री हैं। इसलिए मैं स्वयं को उनकी रचना यात्रा का प्रत्यक्षदर्शी कह सकता हूँ। 

    कवि रवीन्द्रनाथ की कविताओं में सदियों से वर्ण-जातिगत ऊंच-नीच की असमानता, अस्पृश्यता और उसके आधार पर सामाजिक-आर्थिक शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार, घृणा, हिंसा, अपमान और अमानवीयता का दंश झेलते दलित जीवन की त्रासद एवं आक्रोशजन्य अनुभूतियों के साथ-साथ इस अमानवीय जीवन से मुक्ति की छटपटाहट, जिजीविषा और संघर्ष की सार्थक अभिव्यक्ति है। कवि के अंदर समाज परिवर्तन की एक आग है, जो उसे निरंतर व्याकुल करती है। अन्याय और अमानवीयता के विरुद्ध उसकी यह व्याकुलता समानता, न्याय और मानवीयता के प्रति चेतना के सजग आग्रह को प्रतिबिम्बित करती है, जो किसी भी सहृदय कवि का सहज संभाव्य गुण होता है। कवि रवीन्द्रनाथ समानतामूलक समाज का स्वप्न देखते हैं और उस स्वप्न को साकार करने के लिए प्रयास करते दिखायी देते हैं। समानता सद्भाव पर आधारित होती है, और सद्भाव प्रेम पर। समानता होने पर प्रेम हो यह आवश्यक नहीं है, लेकिन प्रेम होने पर सद्भाव और सद्भाव होने पर समानता की संभावनाएँ अवश्य होती हैं। वस्तुत: समानता, सद्भाव और प्रेम परस्पर आबद्ध होते हैं और ये मिलकर मानवीयता का निर्माण करते हैं। न्याय, करुणा और सह-अस्तित्व भी इसमें समाहित होते हैं। 

      कवि की वैचारिक चेतना बुद्ध और अंबेडकरवाद में रची बसी है। इसलिए वह समतामूलक और मानवीय समाज चाहता है किंतु प्रेम, अहिंसा पर आधारित ही, हिंसा और घृणा पर आधारित नहीं। जातिगत घृणा, हिंसा और अहंकार के लिए कवि के सपनों की दुनियाँ में कोई स्थान नहीं है।  कवि के अंदर बुद्ध की करुणा और बाबासाहब अम्बेडकर की संघर्ष चेतना है। इसलिए वह असमानतामूलक व्यवस्था के जनक, पोषक और इस व्यवस्था में शीर्ष पर मौजूद रहकर निम्न वर्ण, जाति और वर्गों पर शासन और शोषण करने वाले वर्चस्वशाली वर्ग के प्रति बदले की भावना से भरा नहीं है अपितु वह उसकी चेतना को झकझोर कर उसकी चेतना में परिवर्तन लाना चाहता है ताकि वह अपनी मानवीयता छोड़कर मानवीय बन सके और अन्य लोगों की मानवीय गरिमा का भी सम्मान कर सके। भारतीय समाज के यथार्थ और वर्चस्वशाली वर्ग के चरित्र से वह भलि-भाँति परिचित है कि वह अपने मूल स्वभाव के प्रति इतना आग्रही है कि उसका सहजता से हृदय परिवर्तन सम्भव नहीं है। इसलिए वह वर्चस्ववादी वर्ग को ललकारता भी है कि यदि उसने अपना स्वभाव नहीं बदला और दलितों को समानता का अधिकार नहीं दिया तो आने वाले समय में उनको दलितों के कड़े प्रतिरोध और चुनौती का सामना करना पड़ेगा, जिसका सामना करना उनके लिए बहुत दुष्कर होगा। नए अथवा युवा कवियों की कविता में जिस प्रकार का आक्रामक तेवर देखने को मिलता है, रवीन्द्रनाथ की इन कविताओं में वह आक्रोश और आक्रामकता नहीं है। यह कवि की  वैचारिक परिपक्वता का सूचक है। संयत, शालीन और अनुशासित भाषा में कवि अपनी कविताओं के द्वारा वह सब बहुत सहजता से कह जाता है जो वह कहना चाहता है।  

      कवि वेदना के शूलों का दर्द अपने पाँव और कलेजे में महसूस करता है, किंतु दलित-शोषित समाज के रास्ते से इन शूलों को हटाने के प्रति प्रतिबद्ध दिखायी देता है। शोषित-उपेक्षितों के प्रति पक्षधरता और प्रतिबद्धता ही एक रचनाकार की असली ताक़त होती है। यही वह मानवीय भाव-बोध है जो साहित्य का असली उद्देश्य और जीवन का ऊत्स होता है।मानवीयता से ओत-प्रोत अपनी इन कविताओं के द्वारा कवि ने अपनी सम्भावनाओं की छाप छोड़ी है। पी.रवीन्द्रनाथ के इस प्रथम काविता संग्रह के प्रकाशन के लिए मैं उनको हृदय से बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ उनकी यह सृजनशीलता निरंतर बनी रहेगी और आने वाले समय में वह और बेहतर रचनाएँ अपने पाठकों को देंगे। 

                            डॉ.जयप्रकाश कर्दम

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