दलित जीवन अभी अंधेरे में........
दलित जीवन अभी
अंधेरे में........
हमारे समाज में दलितों का जीवन नीचता में ही
उलट-पलटकर दिखाई दे रहा है। दलित उतनी प्रगति अभी तक प्राप्त नहीं कर पायी हैं
जितनी महात्मा ज्योतिबा फूले,बाबा साहब अंबेड्कर जैसे महात्माओं ने कांक्षित हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में दलितों की प्रगति बहुत पिछड़े हैं। गाँवों एवं देहातों में
दलितों की पढ़ाई खोया खोया सा दिखाई देता है। दलितों की आर्थिक पुष्टि के अभाव के
कारण माता-पिता दोनों मजदूरी केलिए निकलना पड़ता है। अपने बच्चों के देख-रेख की
कमी की वजह से,माँ-बाप शराब का शिकार होना,दोनों झगड़े करते रहना उन बच्चों केलिए अभिशाप
बन गया। उन बच्चों में अनुशासन हीनता एवं आत्म ग्लानी का शिकार होना पड़ रहा है।
सामाजिक संप्रदायों का पालन दलितों को अछूतेपन से
लिपटा जा रहा है। अन्य सवर्णों की तरह पैसे कमानेवाले भी सांप्रदायिक धंधों से
जुड़े रहने से उनका मान-मर्यादा नीचा ही रहा है। आँध्र प्रांत में गंगम्म जातरा पोलेरम्माजातरा,
अंकालम्मा जातरा,मारम्मा जातरा ( गंगम्मा,पोलेरम्मा,अंकालम्मा देवियाँ मानी जाती
हैं,वे सुख-समृद्धि पहुँचानेवाली मानी जाती हैं।) जैसी देवियों के उत्सव दलितों को
हीनता में डालनेवाली है। इन उत्सवों के अवसर पर दलितों को ढोलक बजाना,शराब
पीना,सबको मजाक दिलानेवाले नृत्य करना दलित की मुद्रा गहराई तक डालनेवाली है। इन
जातराओं में पशुओं को काटना विशेष रिवाज है। हजारों की संख्या में जातरा के नाम पर
वध किया जाता है। अपने बंधु-बाँधओं के साथ सभी लोग खुशियाँ मनाते हैं। भैंसों एवं
बकरों को बलि चढाकर देवी को अर्पण किया जाता है। उन मृत पशुओं को वहीं देवी के
सामने रखा जाता है । सभी लोग देवी की पूजा के लिए आते हैं,उन मृत पशुओं के पास आकर
नाक पर रूमाल व हाथ रखकर चलते रहते हैं । इस तरह चलना परंपरा नहीं बल्कि मृत पशु
दो दिन तक वहीं पड़ा दिया जाने से देखने में असह्य लगता है,बदबू भी आती रहती है। दो
दिन के बाद उन मृत पशुओं को ले जाकर दलितों को खाना पड़ता है। देखिए हमारी समाज की
कैसी विषमता है। सवर्ण जाति के लोग बकरों को बलि देकर उसी समय अपने घर ले जाकर माँसाहार
बना लेते हैं,बंधु जनों के साथ खुशियाँ मनाते हैं। लेकिन दलितों को उन मृत पशुओं
के यहाँ रहना पड़ता है। अंत में उन मृत पशुओं को ले जाकर खाना पड़ता है। इस
द्वंद्वात्मक मानसिकता को दलित कब समझेंगे। सँप्रदाय के नाम पर हीनता के कूप में
अपने जीवन को डालनेवाली सवर्णों की चातुरी को कब समझेंगे। अगर समझ भी लिया हो
गाँवों में इनके विरोधी स्वर उठाने का साहस कब करेंगे। आज के सभ्य समाज में इन
अनाचारों से अपने आप को बचाने में चालाकी कब बन जायेंगे। गाँव का जीवन मूढ़ता एवं
अनाचारों से मिला हुआ है। बाबा साहब ने दलित होने के संबंध में गूढ़ता से विचार
किया है। नीच कार्य करने से,मृत पशुओं को खाने के कारण हमारे समाज में अछूतेपन आ
गया है।
अनुसूचित जाति में आरक्षण का विभाजन माँगनेवाले
दलित यथा स्थिति की माँग करनेवाले दलित इस पर कब विचार करेंगे। अपने पहचान की दौड़
में बाबा साहब अंबेड्कर की जयंती अलग-अलग होकर बिताने में शौक दिखानेवाले इस ओर कब
दृष्टिपात करेंगे। दलितों की उन्नति मांगनेवाले मानवतावादी,जन चेतनावादी सभी इन
अनाचारों पर कदम कब रखेंगे।
दलित वे ही माना जाता है जो पीड़ित,वंछित और शोषित।
अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति को आज उनको भी साथ लेकर चलने की आवश्यकता है,जो
डॉ.अंबेड्कर ने संविधान में सूचित किया है। पिछड़े,महिलाओं को भी दलित के साथ जुड़नी
है। डॉ.अंबेड्कर इनको भी आरक्षण की सूची में दर्ज किया है। ये आरक्षण का अनुभव कर
रहे हैं। हम यहाँ एक बात अवश्य ध्यान देनी है कि एकता से ही स्वतंत्रता की
प्राप्ति हुई है। पिछड़े जातियों में कई जातियाँ दलित का जीवन बितानेवाले हैं।
स्त्रियाँ भी दलिज से भी क्रूर अनुभव भोगना पड़ रहा है। उन पर होने वाले अत्याचार हरदिन
अखबारों में छपा जा रहा है,और कई स्त्रियों के जीवन अंधेरे के पृष्टों में पड़ा
हुआ है। समाज का कल्याण सभी के जीवन में खुशियों का दीप जलने से होता है। सत्यमेव
जयते,श्रमयेव जयते का पालन करना, मानवीय मूल्यों के साथ देना मानवता धर्म है।
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