हमारा धर्म

भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरुआत कब से हुई ..आज के जमाने में सोचने की बात है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में पहली बार वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। प्रो.कॉलब्रूक,मैक्स मूलर प्रो.वेबर जैसे पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार पुरुष सूक्त तो केवल क्षेपक मात्र है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि पुरुष सूक्त अद्वितीय अंग है। हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ.सर्वेपल्ली राधकृष्ण के अनुसार वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति दैविक है। ब्रह्मा ने इनकी सृष्टि की तथा चार वर्णों को गुण कर्म के आधार पर कर्तव्य निर्धारित किये। डॉ. बाबा साहब अंबेड्कर इसके तिरस्कार में मानते हैं कि आर्यों के समाज के प्रारंभ में केवल तीन ही वर्ग थे ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य। शूद्र व चौथा वर्ण तो क्षत्रियों का आवश्यक अंग था।सामाजिक प्रतिष्ठा केलिए ब्राह्मण तथा क्षत्रियों के बीच के संघर्ष में जो हार गया। वही बाद में शूद्र कहने लगे थे।
तेलुगु के वेमना जैसे लोक कवि के पद्यों में कई पद्य क्षेपक का संदेह व्यक्त किया जा रहा है। 2004 में संसद में सूचना और प्रसार मंत्री ने यह काबूल किया कि गाँधी जी के संपूर्ण वांँगमय में 500 गल्तियाँ होने का स्वीकार किया। इसकेलिए समिति बना दी गयी है। दूसरे संस्करण को रद्द किया और इसकी प्रतियाँ बाजार और पुस्तकालयों से वापस ली लीं। अंबेड्कर की रचनाओं पर नजर तक नहीं डाला गया। अमेरिका जैसे देशों से उनकी रचनाओं का प्रकाशन होता दिखाई देता है, यह दूसरी बात है।
सोचने की बात यह है कि आज के जमाने में लोग विभिन्न प्रकार के कामों में लगे हुए हैं। जाति धर्म ऊँच-नीच का रूप धारण करने के कारण निम्न वर्ण के सभी जातियाँ अपने-अपने जाति धर्मों को छोड़ भी दिये गये हैं। अपने धर्म के अपमान जनक व्यवाहार के कारण धर्मांतरीकरण होते आ रहे हैं। एक जमाना ऐसा था कि पूरे देश में बौद्ध जैन धर्म का आचरण था। इस्लाम के लोग यहाँ प्रविष्ट होने से कई लोग उस ओर चले गये हैं। अंग्रेजों के शासन काल में भी इस तरह के धर्मांतरीकरण देखा जाता है। आज भी यह होड़ सी लग गयी हैं। धर्मांतरीकरण पर आज चर्चा का विषय बन गया। गुण कर्म पर आधारित जाति का निर्धारण होना आज नहीं चल रहा है। कई हजारों वर्ष पूर्व गुण कर्म पर आधारित जाति वर्ण आज के जमाने में लागू होना कितना स्वार्थ होगा। हम सब सोचने की बात है। आज कई उच्च वर्ण के लोग चप्पल के दूकान चला रहे हैं। नीच वर्ण व निम्न वर्ग के कई लोग उच्च अधिकारों में हैं। देश के शासन कर्ता भी बनते आ रहे हैं। ऐसी दशा में वर्ण जाति पर आधारित ग्रंथों को राष्ट्रीय ग्रंथों के रूप में घोषणा करने की बात कहाँ तक सही होगा। इसी राह अपनायेंगे तो भारत का विकास कभी नहीं हो सकता। अपने आपस में झगड़ा का विषय होगा। सामाजिक पतन होने की संभावना है। देश में सम समाज की स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाना आवश्यक है। जाति व वर्ण को लेकर शासन चलाना हमारे भारत में सही नहीं होगा।
भारत ऐसा देश है कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को मान सकता है। नये धर्म की स्थापना भी कर सकता है। अपने धर्म की गल्तियों को सुधारने के बजाय उन धर्मांतरीकरण करनेवालों पर शासन के नाम पर काबू में लाने का प्रयास अवश्य सफल नहीं होगा। यह अपहास्य भी होगा। जमाना बदल गया आज सभी पढ़ रहे हैं। तथ्य की खोज में लग रहे हैं। इंसान को इंसान के रूप में देखने के धर्म का आविष्कार की दिशा में कदम बढ़ाना आवश्यक मालूम पड़ता है।

Comments

Popular posts from this blog

తెలుసుకుందాం ...చండాలులు ఎవరు? ఎలా ఏర్పడ్డారు?

दलित साहित्य क्या है ?