यही है हमारा धर्म....



                               यही है हमारा धर्म....

            हर हफ्ते की तरह आज भी गुरुवार का दिन आया है। षिरिड़ि साई से अनुरक्त एक दलित भक्त ने निष्ठा से पूजा करके अपने घर से प्रसाद लाकर दफ्तर के सभी अफ़सरों के सामने रख दिया। कुछ सवर्ण जाति के षिरिड़ि साई भक्तों ने उस प्रसाद को स्वीकार करने में हिचकिचाने लगे हैं। वे हर दिन दफ्तर में इतने जोरदार से साई का नाम लेते हैं और गीत भी गाते रहते हैं। आज वे ही साई बाबा के प्रसाद लेने में क्यों पीछे भाग रहे हैं। भक्ति का क्या अर्थ है इनकी दृष्टि में। वह दलित भक्त पढ़ा-लिखा है,सहचर नौकर है। यह उन सवर्णों के मानसिक पटल पर अंकित जाति भेद की रूप रेखाएँ उनके मुँह पर परिलक्षित होने लगा है। साई बाबा के जीवन को इन भक्तों ने परखा नहीं। पुस्तकों में देखा है लेकिन अपने मानसिकपटल पर नहीं है। इसलिए इनके आचरण में गिरगिट की तरह रंग बदलने लगे हैं। धर्म के क्षेत्र में इनकी द्वैमानसिकता का संचार हो रहा है। इनकी भक्ति बगुल भक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा।
       भगवान को सर्व व्यापी माननेवाले हमारी संस्कृति में कुत्सित धर्म,कुटिल जाति भेद की विषैली वायु सबके अंदर घुस गयी है। वह भक्ति के शरीर को जहरीला बना दिया है। भगवान की भक्ति में पूजा,अर्चना,वंदना करता रहता है। कुत्तों को घर के अंदर बिठाता है। उनको बड़ी चाव से देखता है। अपने साथ सुलाता है। लेकिन इंसान को इंसान के रूप में देख नहीं पाता है। यह कैसी मानसिकता है,जो लोगों के अंदर घुस गयी है। एक महीने के पहले फेसबुक में प्रमुख समाचार पत्रिकाओं में प्रचुरित प्रमुख व्यक्तियों से गौरवान्वित शंकराचार्य का कथन देखने मिला है,जो सबको अचरज में डाल दिया है कि ’दलितों का मंदिर प्रवेश निषेध सही है,यह शास्त्र सम्मत है।’ इस आधुनिक समाज में ऐसी बातें कैसी आयीं,देखनेवाले मानवतावदी के दिलों को दहला दिया है। साधकों को चिंतन में डाल दिया है। ऊँच-नीच,जाति भेद का विभाजन पहले किस आधार पर होता था। आज उसका रूप कैसा है। वह किन संदर्भों में किन परिस्थितियों में हुआ है। उसमें निस्वार्थ की भावना कहाँ तक है। स्वार्थी के घुसाये गये नहीं क्या..। सृष्टि का आरंभ कैसे हुआ। मानव का विकासक्रम को क्या सही ढंग से इन्होंने अंदाजा लगाया है। इसकी सत्य पहचाने बिना दुर्गंध की बातें करना स्वामी कहलानेवाले संन्यासियों को
कहाँ तक न्यायोचित है। महात्मा कहलवाते हैं..गंगा का जल सेवन करते हैं। लेकिन वह पानी किस तरह किन-किन को समेटते हुए आगे बढ़ती है।उनमें क्या-क्या आकर मिल जायेगी। हवा लेते हैं,क्या इसमें जाति,धर्म या प्रांत का भेज है। एक के अंदर से बाहर आनेवाली वायु दूसरे के अंदर जाती है। क्या इसको जाति के नाम पर अलग किया जा सकता है। प्राकृतिक धर्म स्वीकार करनेवाले साधु-सन्यासी ऐसी बातें करें तो साधारण जनता की क्या बात होगी। अपने जीवन यापन केलिए एक दूसरे का सहयोग देना-लेना चाहिए। सहयोग के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं है। ऐसी स्थिति में महानता किसको दें। किसको उच्च और किसको नीच बतायेंगे। इस संदर्भ में काका कालेलकर का उल्लेख करें कि ’एक का अज्ञान काजल के जैसा है तो दूसरे का कोयल के समान है। भगवान सर्वज्ञ है।’ (भारतीय संस्कृति निबंध) अनादि काल से अपनी बुद्दि से,स्वार्थ की कुटिलता से मानवता पर सवारी करनेवाले स्वारत लोगों की खोखलेपन आज जग जाहिर हो रहा है। स्वार्थ मानसिकता के समर्थन में आज सभ्य समाज नहीं है। आज सभी सत्य चाहते हैं। वास्तव चाहते हैँ। अनुभव को बल देते हैं,कल्पना को नहीं। आज दीन-दुखित,दलितों का दिल हजारों मीलों के वेग से असलियत की ओर दौड़ रहा है। धर्म,जाति के नाम पर धोखे खाने को तैयार नहीं है।

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