यही हमारा जीवन !



यही हमारा जीवन !


युग बीतते जा रहे हैं
मगर मानव के स्वार्थ चिंतन में
बदलाव नहीं आया
जाति का प्रेम नस-नस में
अहं की भूमिका निभाता रहा ।
अपने बढाई के दौड-धूप में
मनुष्य का होना भूल गया ।
बढ-बढ की बातें धर्म का
आचरण में अंगडाइयाँ लेता ।
यही असली जीवन मर्म का
हमारे इस गौरवमय समाज का ।
आचार-संप्रदाय को भूलता नहीं
असल में अपने बारे में
अकल की दुहाइयाँ देता ।
जिंदगी का सही कोश बन नहीं पाता
किसी का बना सत्य अपना लेता
अपना सच्चा धर्म मान लेता
उसी कुएँ का अंधा बन जाता ।
दूसरे के धर्म कोखला मानता
हायरे!जिंदगी का असला गूँगा हो जाता ।

आलसी जीवन यह हमारे का ।
दूसरे के पैसे से मौज लेनेवाले का
बडी मूर्खता का जीवन ।
निरंतर चिंतन की आइने में देखें
असली वस्तु का अवबोध होवें ।
सबको पार, सबसे दूर मन में रहें
ज्ञान शक्ति के अनंताकार की अनुभूति
बंधन की जडमति होती सुजाति ।

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