कुछ नहीं जानता
कुछ नहीं जानता
मेरी साहित्य साधना का
अभी कोई नहीं रहा मनोहर गुरू
एकलव्य की एकांत साधना
आत्मा में अंकुठित दीक्षा
अंतराल में अखंड संवेदना
उद्वेलित उखाड़ता मुझे नित्य ।
मेरा जन्म हुआ पिछड़े जाति में
चिंतन-मनन कभी नहीं पिछड़े
दौड़-धूप की इस दुनिया में
उच्चकोटि का विचार मेरा ।
अनजानी पीड़ा मेरी साथी
हरपल आलोकित करती जिंदगी
मालूम नहीं मुझे रचना शैली
उठते-गिरते मानवता के सामने
अवश्य खड़े हो जाता किसी दिन ।
मँडराते मानवता के भौंरे बन
मधुमय मंजुल वाणी ला देता
अखंड संसार का भागीदारी
समझता मैं सकल प्राणीकोटि का
इन्हीं से चलता जीवन गाड़ी
इनके बिना मैं कुछ नहीं जानता ।
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