भारत में जाति का वटवृक्ष

भारत में जाति का वटवृक्ष
"जाति का प्रभाव इतना गहरा और व्यापक है कि समाज में व्यक्ति की पहचान उसके गुण ,कर्म,योग्यता के आधार पर न होकर उसकी जाति से होती है।एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है आजीवन उसी जाति का सदस्य रहकर सुख या संत्रास भोगता है।समाजिक सौहार्द और प्रेम के साथ -साथ समान राष्ट्रीयता के विकास में भी जाति ने बडी बाधा उत्पन्न की है।इसने भारत देश को कभी एक सशक्त संपन्न और अखंड राष्ट्र नहीं बनने दिया।"जाति एक विमर्श ,संपादकीय पृष्ट पर डॉ.जयप्रकाश कर्दम ।
केरल के सुप्रसिद्ध नामी मनीषी, संघ संस्कर्ता ,नारायण गुरूदेव के शिष्य वेलप्पा तेलुगु भाषी इन्हें मलयाल स्वामी के नाम से जाने जाते हैं। अब वे समाधिस्थ हैं। वे यह उद्घाटित करते थे कि मनुष्य का जीवन प्रतिभा एवं योग्यता से न होकर जाति से होना बहुत बुरी मानते थे। इसलिए वे दलितों एवं स्त्रियों की उन्नति केलिए वेद पाठशालाएँ अपने आश्रम में खोल दिया है।आज भी सुचारू रूप से इनका संचालन हो रहा है।
भारत में जाति के बिना व्यक्ति का पहचान ही नहीं है।हर एक काम व कार्य में प्रतिभा के अतिरिक्त जाति को ही देखना हमारे समाज में साधारण सी बात हो गयी है।अपने जातिवाले व्यक्ति से इतना खुलकर विचार करता है कि अन्य जाति से नहीं।क्योंकि ये बातें अपने अनुकूल की होती हैं। अन्य जाति के लोगों को वे बातें गरल के समान लगता है।इसलिए अपनी अपनी जाति के अलग दल बनते जाना देश की हितकारी नहीं होगी ।जाति के कारण लगों के बीच में तनाव एवं संघर्ष होने की संभावना भी है।एक जाति की उन्नति दूसरे जाति के लोग सहन नहीं कर पाना हमें दिखाई दे रहा है।आज हम सब पढ रहे हैंआगे बढ रहे हैं जाति की मूल बात अंतरंग से क्यों न निकाल फेंक सकते। समाजिक जीवन में दलितों को क्यों अछूत मानकर पशु से भी हीन देखते हैं। क्योंकि अनादि से ये जाति के नाम पर वंचित रखा गया है।
धर्म के साथ जुडा दिया है।आज हर मंदिर में जाति के अन्न सत्र दिखाई दे रहे हैं ।जाति के नाम पर अलग होते आ रहे हैं। सहपंक्ति भोजन से दूर होने से सामाजिक न्याय की कल्पना हमारी मूर्खता होगी।यथा शीघ्र इन जाति संघ तथा अन्न सत्रों को सार्वजनिक मंदिरों से रद्द करनी होगी। धर्म के नाम पर जाति की जहर दलितों पर फूँकना चाहते हैं लेकिन दलितों के आरक्षण के विरोधी बात तो ऊँचे आवाज में करते हैं।कुछ मठाधिकारियों ने एक कदम आगे बढाकर मनुवादी धर्म का समर्थन करते हुए दलितों को मंदिरों में प्रविष्ट करने में रोकने की बात कर रहे हैं।जाति तथा वर्ण की वजह से स्वामी विवेकानंद को धर्म सत्रों में सह पंक्ति भोजन नहीं कराते थे। प्रसिद्ध दलित राजनीति वेत्ता ,सिनेमा कलाकारों से मंदिर की उन्नति केलिए पैसे तो माँगते हैं लेकिन मंदिर प्रविष्ट न होने देता।अगर प्रविष्ट हो जाय मंदिर को फिर से साफ करते हैं ।अपवित्र होने की बात लेकर पूजा यज्ञ जैसे कार्यक्रम करवाते हैं।यह कैसी सामाजिक नीति है।इस विषय में आरक्षण विरोधी कुछ नहीँ बोलते।कहीं कहीं दलित पढ लिखकर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते दिखाई देते हैं।इस पर जहर निकलना कहाँ तक सामाजिकता है।जब तक जाति के नाम पर दलितों को अलग करते रहते हैं तब तक आरक्षण होना समाजिक कल्याणकारी है। बिना जाति पूछे एक दूसरे के साथ जब वैवाहिक संबंध जोडने में संकोच न हो तबतक आरक्षण दलितों का हक है।क्योंकि समानता पाना हर एक का अधिकार है।सवर्ण जाति के पास आर्थिक पुष्ठि में थोड़ा पिछडेपन क्यों न आयें वे सबके साथ घूम फिरके सबके साथ बैठ सकते हैं।ऐसी बात दलितों के साथ कहाँ है । दलित पढे लिखे कयों न हो नौकरी भी करता हो उनका स्तर निचला ही रहा है। इस पर ध्यान दीजिए।दलितों को आरक्षण द्वारा प्राप्त अधिकारों को भोगने दें।सार्वजनिक स्थलों में सबके साथ बैठने दे।उनके साथ सद्व्यवहार करें।उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करें। आरक्षण की बात अपनी आप आसानी से सुलझ जायेगी।
हमारे समाज में फैली जाति के वटवृक्ष का नष्ट करें।
जय भीम।

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