कुछ लोग डॉ.जयप्रकाश कर्दम को स्त्री विरोधी कहानीकार के रूप में आरोप
लगाते हैं। मैं यह सही नहीं मानता क्यों कि उनकी कहानियाँ यथार्थ के धरातल
पर हैं।वे दलित जीवन के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
सांग ऐसी कहानी है कि पूरे दलितों को चेतना लानेवाली है।ग्रामीण परिवेश में कहानी चलती है।इसमें चंपा दलित महिला है । दलित जीवन को केंद्र बनाकर लिखी गई है,लेकिन चंपा ही केंद्रबिंदु है।परिवार को चलाने में अपना योगदान देनेवाली है। दलित स्त्रियों में स्वाभिमान जगाने में,शोषण के खिलाफ लडने में प्रेरणादायक है।आजके अत्याचार का शिकार होनेवाली औरतों को स्वाभिमान की रक्षा करने का धैर्य बटोरनेवाली है।स्त्री अबला नहीं सबला भी है।उसमें सहनशीलता जितनी होती है उतनी प्रतीकार की आग सुलगती रहती है।आवश्यकता पडने पर वह अपने को साबित करती है।
कहानी का अंत अपने पर होनेवाली अमानवीय व्यवहार के प्रतिरोध से समाप्त होती है।
महिलाओं ,लडकियों में मनोबल बढाती है यह कहानी।
सांग ऐसी कहानी है कि पूरे दलितों को चेतना लानेवाली है।ग्रामीण परिवेश में कहानी चलती है।इसमें चंपा दलित महिला है । दलित जीवन को केंद्र बनाकर लिखी गई है,लेकिन चंपा ही केंद्रबिंदु है।परिवार को चलाने में अपना योगदान देनेवाली है। दलित स्त्रियों में स्वाभिमान जगाने में,शोषण के खिलाफ लडने में प्रेरणादायक है।आजके अत्याचार का शिकार होनेवाली औरतों को स्वाभिमान की रक्षा करने का धैर्य बटोरनेवाली है।स्त्री अबला नहीं सबला भी है।उसमें सहनशीलता जितनी होती है उतनी प्रतीकार की आग सुलगती रहती है।आवश्यकता पडने पर वह अपने को साबित करती है।
कहानी का अंत अपने पर होनेवाली अमानवीय व्यवहार के प्रतिरोध से समाप्त होती है।
महिलाओं ,लडकियों में मनोबल बढाती है यह कहानी।
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