तुम कुछ नहीं करोगी...



तुम कुछ नहीं करोगी...


हे मेरे सिर का बोझ,
तुम दर्द हो...!
तुम पीड़ा हो...!
जातिभेद के,
असमानता के ।
अनादि काल से..
मेरी पीढ़ियों को..
नशे में डालते..
मदमत्त घुमाये हो..!
मंदमति बनाये हो..!
मेरे नसों में अनुवंशिक हो..
चलते-फिरते आये हो..!?
अतुलित बलधाम मानते हो..!
अब तुम्हारा काल नहीं..,
डरेगा कैसे मेरे अरूण-कण ?
दम है मेरे धमनियों में..
संकल्प शक्ति मेरे अंदर..
तेरे सत्यनाश का ।
लोकहित की कविता का
मानवता के उपकार का
तुम ही हो रसमय भोज..
मेरी पूर्वजों की आत्मा की शाँति ।

शब्द सीढ़ियों पर नाचते..
मधुमय समतल में उतर जा,
सुंदर-शोभित उपवन बन जा ।

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